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श्री सारणेश्वर महादेव मन्दिर, सिरोही का इतिहास

सिरोही राज्य की स्थापना 1206 ईस्वी सन् में हुई एवं इसके तृतीय शासक महाराव विजयराजजी उर्फ बीजड, जिनका शासनकाल 1250 से 1311 ईस्वी सन् रहा, ने इस मन्दिर की स्थापना की।


1298 ईस्वी सन् में दिल्ली के शक्तिशाली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात के सोलंकी साम्राज्य को समाप्त किया एवं सिद्धपुर स्थित सोलंकी सम्राटों द्वारा निर्मित विशाल रूद्रमाल के शिवालय को ध्वस्त किया। उसके शिवलिंग को निकाल कर खुन से लथपथ गाय के चमडे में लपेटकर, जंजीरो से बान्धकर हाथी के पैर के पीछे घसीटता हुआ दिल्ली की ओर अग्रसर हुआ।



आबूपर्वत की तलेटी में बसी चन्द्रावती महानगरी पहुंचते ही सिरोही के महाराव विजय राजजी को इस बात की सूचना मिली और उन्होने एक पत्र अपने भतीज जालोर के महान शुरवीर कान्हडदेव सोनीगरा को भेजा एवं दूसरा पत्र अपने समधी मेवाड के महाराणा रतन सिंहजी को यह लिखते हुए भेजा कि मरने के लिए इससे सुयोग्य अवसर प्राप्त नही हो सकता।


कान्हडदेव सोनीगरा अपने पूर्ण सैन्य बल के साथ उपस्थित हुए और महाराणा ने अपनी सेना भेजी। सिरोही, जालोर एवं मेवाड की राजपूत सेनाओं ने मिलकर सुल्तान का पीछा किया एवं सिरणवा पहाड की तलेटी में इनका युद्ध हुआ जिसमें भगवान शंकर की कृपा से राजपूत सेनाएं विजयी हुई और दिल्ली का सुल्तान हारा।


वो दिपावली का दिन था और उसी दिन सिरोही नरेश महाराव विजयराजजी ने उस दुष्ट सुल्तान से रूद्रमाल के लिंग को प्राप्त कर उसे सिरणवा पहाड के पवित्र शुक्ल तीर्थ के सामने स्थापित किया। इस मन्दिर का नाम ’’क्षारणेश्वर’’ रखा गया। क्योकि इस युद्ध में बहुत तलवारे चली उसी के कारण इस मन्दिर की स्थापना हुई। कालान्तर में ये सारणेश्वर महादेव कहलाए एवं सिरोही के देवडा चैहान राजवंश के ईष्टदेव के रूप में पूजे जाते है।

सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की शर्मनाक हार होने पर उसे दिल्ली की ओर पलायन करना पडा। परन्तु 10 महीने बाद एक विशाल सेना को तैयार कर अपना बदला लेने की दृष्टि से उसने 1299 ईस्वी सन् के भाद्र मास में सिरोही पर आक्रमण किया इस संकल्प से कि वो क्षारणेश्वर के लिंग को तोडकर उसके टुकडे-टुकडे करेगा एवं सिरोही नरेश का सिर काटेगा। तब सिरोही की प्रजा ने सिरोही नरेश से विनती की कि धर्म की रक्षा के लिए वे सब मर मिटने को तैयार है। उस भीषण युद्ध में ब्राहमणों ने इतना बलिदान दिया कि सवा मण जनेव ;यज्ञो पवितद्ध उतरी थी एवं रबारियो ने सिरणवा पहाड के हर पत्थर एवं पेड के पीछे खडे होकर गोफन के पत्थरो से मुसलमान सेना पर ऐसा भीषण प्रहार किया कि उसे पराजित होना पडा।



सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी पर ईश्वरीय प्रकोप हुआ और उसे भंयकर कोढ ;स्मचतवेलद्ध हो गया जो भगवान शंकर के शुक्ल तीर्थ के जल से स्नान करने से ठीक हुआ। तब सुल्तान ने हार मानी एवं यह वचन दिया कि वो पुनः कभी सिरोही पर आक्रमण नही करेगा और अपने साथ जो धन था वो भगवान शंकर को अर्पित कर चला गया, जिससे अन्दर का सफेद परकोटा एवं उप मन्दिर बने।

रबारियों के निर्णयाक योगदान एवं बलिदान को मद्देनजर रखते हुए सिरोही नरेश महाराव विजयराजजी ने उन्हे सम्मानित करने की दृष्टि से उस दूसरी विजय जो भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी , अर्थात देवझुलनी एकादशी , को हुई थी को इस मन्दिर का वार्षिकोत्सव मेला स्थापित किया एवं उस एक दिन के लिए मन्दिर का चार्ज रबारियों को सौंपा गया। यह परम्परा सिरोही नरेश द्वारा आज दिन तक निभाई जा रही है इसीलिए इस मेले में सर्वाधिक उपस्थिति रबारियों की रहती है।



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